क्रियात्मक अनुसन्धान तथा परम्परागत अनुसन्धान में अंतर

 क्रियात्मक अनुसन्धान तथा परम्परागत अनुसन्धान में अंतर (Differences between functional research and traditional research)



क्रियात्मक अनुसन्धान तथा परम्परागत अनुसन्धान में भिन्नता मुख्यत: प्राचीनकाल हो या वर्तमानकाल हो वास्तविक अनुसन्धान तो मौलिक एवं सतह अनुसन्धान को ही माना जाता है। क्रियात्मक अनुसन्धान तो वस्तुत: पाठशाला को स्थानीय समस्याओं को सुलझाना या वहाँ के क्रियाकलापों में सुधार लाना है। अतः तकनीकी दृष्टि से क्रियात्मक शोध को वास्तविक शोध नहीं माना जा सकता, पर कोरे महोदय ने इसे शोध माना और तब से इस प्रकार के कार्यक्रम को शोध की संज्ञा देने की परम्परा शिक्षाविदों में है। क्रियात्मक शोध और परम्परागत शोध एक-दूसरे से काफी भिन्न हैं। इनका वर्णन निम्नलिखित है

वस्तुत: परम्परागत शोध का क्षेत्र बहुत व्यापक होता है। इस प्रकार के शोध का उद्देश्य सामान्य नियमों एवं सिद्धान्तों की स्थापना तथा वास्तविक परिस्थितियों में उनका उपयोग करना होता है। इस प्रकार के शोध से ही ज्ञान का विकास होता है। इसमें शोधकर्ता प्रायः व्यक्ति होते हैं जिनका विद्यालयों से प्रत्यक्ष सम्बन्ध नहीं होता। प्रो. के. बी. पाण्डेय तथा डॉ. अमिता पाण्डेय ने अपनी पुस्तक "शिक्षा में क्रियात्मक अनुसन्धान" में लिखा है कि अनुसन्धानकर्ताओं को शोधकार्य की समाप्ति पर किसी-न-किसी प्रकार की औपचारिक उपाधि दी जाती हैं। इन्होंने विशेष रूप से पी-एच. डी. शोध ग्रन्थों का उल्लेख किया है। वस्तुत: पी-एच. डी. के शोध ग्रन्थों द्वारा वास्तविक शोध करने का प्रशिक्षण प्राप्त होता है, जिसका प्रतिबिम्ब उनके द्वारा प्रकाशित शोधपत्रों से होता है। क्रियात्मक अनुसन्धान का क्षेत्र विद्यालयों और उनकी कार्य-पद्धति तक ही सीमित है। इसमें अनुसन्धानकर्ता अध्यापक, प्रधानाचार्य तथा विद्यालय प्रबन्धक हो सकते हैं।

अतः शिक्षक-प्राध्यापक तथा प्रबन्धक और विद्यालय निरीक्षक तो अनुसन्धान के उपभोक्ता मात्र हैं। अधिकांशत: इन लोगों में अनुसन्धान के लिए वांछित तकनीकी कुशलता तथा शोध अभिवृत्ति नहीं होती। ये लोग विशेषज्ञों द्वारा की गयी खोजों से प्रतिपादित सिद्धान्तों और नियमों का प्रयोग शिक्षा के क्षेत्र में करते हैं।

वस्तुतः परम्परागत अनुसन्धान और क्रियात्मक अनुसन्धान एक-दूसरे के विरोधी नहीं हैं। हाँ, इतना अवश्य है कि परम्परागत शोध अध्यापक, प्रधानाचार्य तथा निरीक्षकों एवं प्रबन्धकों और अनुसन्धानकर्त्ताओं के मध्य कोई सेतु स्थापित नहीं कर पाता। क्रियात्मक अनुसन्धान शिक्षालयों तथा अनुसन्धानकर्त्ताओं के मध्य के फासलों को कम करने का प्रयास अवश्य करता है, परन्तु कोरे ने परम्परागत अनुसन्धानकर्त्ताओं के शोध प्रकाशन को एक व्यावसायिक रोग कहा है।

परम्परागत और क्रियात्मक अनुसन्धान में मुख्य अन्तर निम्नांकित दृष्टियों से किया जा सकता है

1. उद्देश्य की दृष्टि से- सिद्धान्तों की खोज, प्रारूपों को विकसित करना और नियमों का प्रतिपादन करना मुख्यतः परम्परागत अनुसन्धानों का उद्देश्य होता है। शिक्षण विधियों, अधिगम के नियमों और स्मरण की विधियों तथा नियमों का निरूपण परम्परागत, मौलिक और व्यावहारिक अनुसन्धान द्वारा होता है। क्रियात्मक अनुसन्धान का मुख्य उद्देश्य किसी विद्यालय की स्थानीय समस्याओं का हल ढूँढ़ना और विद्यालयों की गतिविधियों में सुधार लाना है। इसके अतिरिक्त शिक्षकों, प्रधानाचार्यों, निरीक्षकों तथा प्रबन्धकों के निर्णयों तथा कार्य-पद्धतियों में संशोधन, प्रभावकता तथा विकासशीलता लाना क्रियात्मक अनुसंधानों का मुख्य उद्देश्य होता है। मौलिक अनुसन्धान का उद्देश्य शिक्षा के क्षेत्र में नवीन ज्ञान का अन्वेषण करना है। क्रियात्मक अनुसन्धान मूल रूप से व्यवहार पक्ष पर बल देता है तथा इसका उद्देश्य केवल विद्यालय और विद्यालय से सम्बन्धित व्यक्तियों के निर्णय एवं कार्यशैली में सुधार लाना होता है।

2. समस्या के महत्त्व की दृष्टि से- परम्परागत अनुसन्धान की समस्या का क्षेत्र व्यापक होता है तथा इसका उदय ज्ञान की कमी, पूर्व में किये गये शोधों के परिणामों में विरोधाभास, पूर्व शोधों से प्राप्त निष्कर्षों की पुनरावृत्ति के उद्देश्य से होता है। इन शोधों की समस्या शिक्षा के सम्पूर्ण क्षेत्र से होती है, न कि किसी विद्यालय विशेष की समस्या से। क्रियात्मक अनुसन्धान की समस्या का क्षेत्र सीमित होता है। यह समस्या किसी विद्यालय विशेष की होती है। इस समस्या का महत्त्व केवल उस विद्यालय विशेष और उससे सम्बन्धित व्यक्तियों के लिए होता है।

3. मूल्यांकन की कसौटी- परम्परागत अनुसन्धान के लिए प्रयुक्त कसौटी, उसके द्वारा ज्ञान के क्षेत्र में योगदान तथा उन परिणामों के सामान्यीकरण की सम्भाव्यता पर की जाती है। इन परिणामों को शिक्षा के क्षेत्र में किस सीमा तक प्रयुक्त किया जा सकता है, इस पर इन शोधों की सफलता का आकलन होता है। क्रियात्मक अनुसन्धान की सफलता को विद्यालय की प्रतिदिन की कार्यशैली में सुधार एवं प्रगति की कसौटी पर कसा जाता है। यदि विद्यालय क्रियात्मक अनुसन्धान के निष्कर्षों के अनुरूप अपनी कार्यशैली में परिवर्तन नहीं करता है और अपनी पुरानी कार्यशैली को अपनाये रखता है, तो क्रियात्मक अनुसन्धान असफल समझा जाता है।

4. चयन किये गये न्यादर्श की दृष्टि से- परम्परागत शोध में प्राय: न्यादर्श द्वारा प्राप्त निष्कर्षो के आधार पर ही सामान्यीकरण किया जाता है। किसी भी मनोवैज्ञानिक तथ्य अथवा मानवीय व्यवहार के सत्यापन के लिए व सम्पूर्ण समग्र का अध्ययन असम्भव नहीं तो कठिन अथवा दुष्कर अवश्य होता है। समग्र उन समस्त लोगों, वस्तुओं अथवा तथ्यों का समूह है, जो किसी परिभाषित व पूर्व निश्चित विशेषताओं के क्षेत्र में आते हैं। कुछ विशेषताओं के आधार पर एक समग्र दूसरे समग्र में निहित हो सकता है, जैसे- उन समस्त पुरुषों का समग्र जो भारत में रहते हैं, भारत में रहने वाले समस्त व्यक्तियों के समग्र में सन्निहित हैं।

परम्परागत तथा मौलिक अनुसन्धान में समग्र तथा न्यादर्श चयन का अत्यधिक महत्त्व होता है, क्योंकि इस प्रकार के अनुसन्धान का उद्देश्य प्राप्त परिणामों का समग्र के लिए सामान्यीकरण करना होता है। इस प्रकार के अनुसन्धानों में न्यादर्श का चयन पूर्व स्थापित न्यादर्श चयन की वैज्ञानिक विधियों द्वारा किया जाता है, जैसे- अनायास न्यादर्श, कोटा न्यादर्श, सोद्देश्य न्यादर्श, सरल सम्भाव्य न्यादर्श, वर्गीय सम्भाव्य न्यादर्श तथा गुच्छन न्यादर्श । क्रियात्मक अनुसन्धान में समग्र तथा न्यादर्श का प्रश्न ही नहीं उठता, क्योंकि जो कुछ भी विद्यालय के अन्तर्गत आता है, उसे शोध का विषय बनाया जा सकता है। परिणामस्वरूप विद्यालय के छात्र एवं अध्यापक स्वतः ही अनुसन्धान का समग्र वन जाते हैं। उदाहरणार्थ, प्रधानाचार्य अपने विद्यालय के छात्रों में अनुशासनहीनता के कारणों को ज्ञात करने के लिए क्रियात्मक शोध की योजना तैयार कर सकता है। इसी प्रकार किसी अध्यापक द्वारा अपनी कक्षा में निरन्तर छात्रों की अनुपस्थिति के कारणों को ज्ञात करने के लिए छात्र समग्र और न्यादर्श दोनों का कार्य करते हैं तथा द्वितीय अवस्था में उस कक्षा विशेष के छात्र समग्र और न्यादर्श भूमिका अदा करते हैं। परम्परागत अनुसन्धान में प्राय: न्यादर्श का आकार बड़ा होता है, जबकि क्रियात्मक अनुसन्धान में न्यादर्श का प्रश्न ही नहीं उठता।

5. अनुसन्धान के अभिकल्प की दृष्टि से- कोई भी अनुसन्धान प्रारम्भ करने से पूर्व अनुसन्धान की कार्ययोजना तैयार कर ली जाती है, जिससे अनुसन्धान को सरलता से पूरा किया जा सके तथा अन्य शोधकर्त्ता यदि चाहे तो इसकी पुनरावृत्ति कर परिणामों की सत्यता की जाँच कर सके। शोध की इस कार्ययोजना को शोध अभिकल्प कहा जाता है। शोध अभिकल्प प्रदत्तों के संकलन और विश्लेषण की ऐसी नियमित विधि है जिसमें उद्देश्य की प्रसंगात्मकता तथा धन, समय और प्रयास की मितव्ययिता सन्निहित रहती है। परम्परागत अनुसन्धान में शोध अभिकल्प सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण होता है। शोध प्रारम्भ करने के पश्चात् इसमें किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं किया जा सकता। अत: इसे बहुत सोच-विचार कर तैयार किया जाता है।

क्रियात्मक अनुसन्धान में यह रूपरेखा लचीली होती है। स्टीफन एम. कोरे के अनुसार क्रियात्मक अनुसन्धान की रूपरेखा कठोर नहीं होती है। समस्या की परिभाषा, उपकल्पना एवं उनकी परीक्षण विधि में आवश्यकतानुसार परिवर्तन किया जा सकता है। इस प्रकार के अनुसन्धान की रूपरेखा वास्तविक परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तनशील होती है।

6. सामान्यीकरण- परम्परागत शोध अधिकांशत: सामान्यीकरण के उद्देश्यों से ही किये जाते हैं। हर शोधकर्ता किसी न किसी प्रकार का सामान्यीकरण अवश्य करता है। इ अनुसन्धानों में ज्यादर्श पर किये गये अध्ययनों के परिणामों को पूरे समग्र के लिए सत्य माना जाता है। पर इस प्रकार के सामान्यीकरण की वैधता एवं विश्वसनीयता इस तथ्य पर निर्भर करती है कि चयन किया गया न्यादर्श समग्र का कितना प्रतिनिधित्व करता है। न्यादर्श समय का जितना अधिक प्रतिनिधित्व करेगा उसके आधार पर किया गया सामान्यीकरण उतना हो। वेध एवं विश्वसनीय होगा।

क्रियात्मक अनुसन्धान में इस प्रकार का सामान्यीकरण आवश्यक नहीं होता है। क्रियात्मक अनुसन्धान का उद्देश्य किसी समस्या, व्यक्ति या समूह की कार्य प्रणाली में सुधार लाना होता है। अत: इसके परिणामों का सामान्यीकरण नहीं किया जा सकता है। दोनों प्रकार के अनुसन्धान में विभेद करने के लिए दो प्रकार के सामान्यीकरण आवश्यक है, यथा- पाविक तथा उदय।

7. शोधकर्ता की दृष्टि से- परम्परागत अनुसन्धान प्रायः उन शोधकर्ताओं द्वारा किये जाते हैं जिनका प्रत्यक्ष सम्बन्ध विद्यालय से नहीं होता है। यह लोग प्राय: शोध संस्थानों से जुड़े लोग होते हैं। इनके अतिरिक्त उच्च शिक्षा के विकास से विश्वविद्यालय तथा महाविद्यालय के लिए शोध करना एक अच्छा लक्षण माना जाता है, जबकि क्रियात्मक अनुसन्धान केवल विद्यालय के शिक्षकों, प्रधानाचार्यों और प्रबन्धकों के द्वारा ही किया जाता है। ये वे व्यक्ति होते हैं जिनका विद्यालय से सीधा सम्बन्ध होता है।

डब्ल्यू बेस्ट के विचार में परम्परागत और क्रियात्मक अनुसन्धान के मध्य कोई द्वन्द्व नहीं है। इन दोनों में प्राथमिकता का अन्तर है न कि विधि का। दोनों में ही उच्च कोटि की वस्तुनिष्ठता सन्निहित होती है।