शिक्षा और दर्शन का अर्थ, परिभाषा, संबंध, प्रभाव, आवश्यकता, महत्व

दर्शन का अर्थ (Meaning of Philosophy)





दर्शन शब्द की उत्पत्ति संस्कृत भाषा के शब्द 'दृश्' धातु के 'करण' अर्थ में 'ल्युट्' प्रत्यय लगाकर हुई है इसका अर्थ है― 'जिसके द्वारा देखा जाए'। 'दृश्यते अनेन इति दर्शनम्' इस तरह 'दर्शन' वह विज्ञान है जिसके द्वारा देखकर जाना जाता है दर्शन को अंग्रेजी भाषा में फिलॉसफी (Philosophy) शब्द का हिंदी रूपांतरण माना जाता है जो यूनानी भाषा के दो शब्दों की 'फिलॉस' (Philos) और 'सोफिया' (Sophia) से मिलकर बना हुआ है फिलॉस अर्थ है― 'प्रेम' और सोफिया का अर्थ है― 'ज्ञान'। इस प्रकार 'फिलॉसफी' का अर्थ 'विद्यानुराग' या 'ज्ञान से प्रेम'।



'दर्शन' शब्द में मानसिक प्रक्रिया के तीन पक्ष― ज्ञान, कर्म और भाव निहित है
दर्शन मनुष्य के चेतन की उच्चतम सीमा है इसमें संपूर्ण ब्रह्मांड एवं मानव जीवन के वास्तविक स्वरूप, सृष्टि सृष्टा, आत्मा परमात्मा, जीव जगत, ज्ञान अज्ञान, ज्ञान प्राप्त करने के साधन और मनुष्य के करणीय और अकरणीय कर्मों का तार्किक विवेचन किया जाता है भारत दर्शन की गुरु स्थली माना जाता है भारत के बाद इस क्षेत्र में यूनान (ग्रीस) देश का नाम आता है आज तो संसार में प्रायः सभी सभ्य देशों में दर्शन का विकास हो रहा है परंतु दर्शन के विषय में भारतीय और पाश्चात्य दृष्टिकोण में थोड़ा अंतर है






दर्शन की परिभाषा (Definitions of Philosophy)


अरस्तू के अनुसार- दर्शन ऐसा विज्ञान है जो परम तत्व के यथार्थ स्वरूप की जांच करता है

प्लेटो के अनुसार- पदार्थों के यथार्थ स्वरूप का ज्ञान ही दर्शन है

काम्टे के अनुसार- दर्शन विज्ञानों का विज्ञान है

डॉ राधाकृष्णन के अनुसार- यथार्थता के स्वरूप का तार्किक विवेचन ही दर्शन है

गांधीजी के अनुसार- यह दर्शन को एक प्रयोग मानते हैं जिसमें मानव व्यक्तित्व एवं सत्य उसकी विषय वस्तु होती है और उसको जानने के लिए हम प्रमाण एकत्रित करते हैं।

शिक्षा दर्शन का अर्थ (Meaning of Education Philosophy)


शिक्षा दर्शन, दर्शन की वह शाखा है जिसमें हम शिक्षा संबंधी समस्याओं पर दार्शनिक दृष्टिकोण से विचार करते हैं यह एक प्रयुक्त दर्शन है जब हम विशुद्ध दर्शन के आधारभूत प्रत्ययों तथा सिद्धांतों का प्रयोग शिक्षा के क्षेत्र में करते हैं तो हम उसे शिक्षा दर्शन कहते हैं
शिक्षा दर्शन अध्ययन का एक नया क्षेत्र है दर्शन एवं शिक्षा ने सामाजिक समस्या के संदर्भ में चिंतन करके जो समाधान दिया है उस पाठ्यवस्तु को शिक्षा दर्शन की संज्ञा दी जा सकती है
दर्शन जीवन की समस्याओं को दार्शनिक दृष्टिकोण समझने का प्रयास करता है और उसके लिए जो समाधान दिया जाता है शिक्षा उसको व्यवहारिक रूप देती है

शिक्षा दर्शन की परिभाषाएं (Definitions of Educational Philosophy)


जॉन डीवी के अनुसार― शिक्षा दर्शन सामान्य दर्शन का एक साधारण संबंध ही नहीं, अपितु दार्शनिकों ने अब तक सही  माना कि वह दर्शन का महत्वपूर्ण पक्ष है क्योंकि शिक्षा प्रक्रिया द्वारा ही ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है

हेन्डरसन के अनुसार― शिक्षा दर्शन शिक्षा की समस्याओं के अध्ययन में दर्शन का प्रयोग है

टी. ई. शील्ड्स के अनुसार― शिक्षा दर्शन का कार्य दर्शन द्वारा प्रतिपादित सत्यों एवं सिद्धांतों को शैक्षिक प्रक्रिया के संचालन में प्रयोग करना है।






दर्शन का अध्ययन क्षेत्र व विषय वस्तु (Scope and Subject-Matter of Philosophy)


दर्शन का अध्ययन क्षेत्र अत्यंत व्यापक है यह एक ऐसा अध्ययन है जिसमें संपूर्ण ब्रह्मांड और उसकी समस्त क्रियाओं की वास्तविक खोज सम्मिलित है इसमें प्रकृति एवं ईश्वर के संबंध में गहन चिंतन किया जाता है प्राचीन दर्शन में इतिहास, कला, धर्म, साहित्य, विज्ञान आदि सभी विषय आते हैं दर्शन के इस अध्ययन क्षेत्र में हमने अभी तक जो कुछ भी प्राप्त कर लिया है वहीं दर्शन की विषय वस्तु है दर्शन के अध्ययन क्षेत्र को मुख्य रूप से तीन भागों में बांटा गया है― तत्व मीमांसा, ज्ञान मीमांसा, मूल्य मीमांसा

1.तत्व मीमांसा (Metaphysics)― दर्शन में तत्व मीमांसा का क्षेत्र बहुत व्यापक होता है इसमें सृष्टि सम्बन्धी तत्व ज्ञान अर्थात सृष्टिशास्त्र (Cosmogomy), सृष्टि विज्ञान (Cosmology) एवं सत्ता विज्ञान (Ontology) आते हैं और आत्मा सम्बन्धी तत्व ज्ञान एवं ईश्वर संबंधित तत्व ज्ञान आते हैं इसमें आत्मा परमात्मा एवं जीव जगत के साथ-साथ मानव जीवन की व्याख्या और वास्तविक सौंदर्य की विवेचना भी आती है वास्तविक सौंदर्य की विवेचना को आप सौंदर्यशास्त्र कहते हैं इस क्षेत्र में अब तक जो कुछ सोचा बिचारा जा चुका है उसकी तार्किक विवेचना इसकी विषय वस्तु है

2. ज्ञान एवं तर्क मीमांसा (Epistemology and logic)― ज्ञान मीमांसा के क्षेत्र में मानव बुद्धि, ज्ञान के स्वरूप, ज्ञान की सीमा, ज्ञान की प्रमाणिकता, ज्ञान प्राप्त करने के साधन, ज्ञान प्राप्त करने की विधियां, ज्ञाता और ज्ञेय के बीच के संबंध, तर्क की विधियां, सत्य असत्य प्रमाण और भ्रम की व्याख्या आती है इस क्षेत्र में अब तक जो कुछ सोचा विचार जा चुका है उसकी तार्किक विवेचना इसकी विषय वस्तु है

3.मूल्य एवं आचार मीमांसा (Axiology and Ethics)― मूल्य एवं आचार मीमांसा के क्षेत्र में मानव जीवन के आदर्श एवं मूल्यों की विवेचना आती है मानव जीवन के अंतिम उद्देश्य को प्राप्त करने के साधनों की विवेचना आती है और मानव के करणीय तथा अकरणीय कर्मों की विवेचना आती है करणीय तथा अकरणीय कर्मों की विवेचना को ही नीतिशास्त्र कहते हैं जब तक कोई दर्शन मनुष्य को आचरण की दिशा प्रदान नहीं करता तब तक उसका कोई महत्व नहीं होता इसमें इस शब्द की व्याख्या के साथ-साथ जीवन के वास्तविक सौंदर्य को प्राप्त करने की विधि भी आती है इस क्षेत्र में अब तक जो कुछ सोचा-विचारा जा चुका है उसकी तार्किक विवेचना इसकी विषय वस्तु है

दर्शन और शिक्षा में संबंध (Relation of Philosophy and Education)


दर्शन और शिक्षा में संबंध को अनेक विद्वानों ने अपने-अपने ढंग से समझाया है दर्शन के तीनों शाखाओं का शिक्षा से घनिष्ठ संबंध है जो निम्नलिखित है

1.तत्व मीमांसा और शिक्षा (Metaphysics and Education)― तत्व मीमांसा का विषय क्षेत्र संपूर्ण ब्रह्मांड है इसके अंतर्गत आत्मा, परमात्मा, विज्ञान, जगत, मनुष्य आदि का अध्ययन किया जाता है सत्य अथवा यथार्थ के ज्ञान का ही दूसरा नाम तत्व ज्ञान है शिक्षा का उद्देश्य भी वास्तविक अथवा यथार्थ का ज्ञान करना होता है तत्वज्ञान ही व्यक्ति को जीवन की वास्तविकता से परिचित कराता है
उदाहरण के लिए प्रकृतिवाद और आदर्शवाद की तत्व मीमांसा को ले लीजिए प्रकृतिवाद के अनुसार यह संपूर्ण ब्रह्मांड प्रकृतिजन्य है और प्रकृति द्वारा निर्मित यह भौतिक जगत ही सत्य है इसके अतिरिक्त कोई आध्यात्मिक जगत नहीं है इसके अनुसार मनुष्य भी एक प्रकृतिजन्य रचना है जिसके जीवन का उद्देश्य सुख पूर्वक जीना है परिणाम स्वरूप या शिक्षा द्वारा मनुष्य को सुख पूर्वक जीवन जीने के लिए तैयार करने पर बल देता है और सुख पूर्वक जीवन जीने के लिए उसके शारीरिक और मानसिक विकास पर बल देता है और उसे किसी उत्पादन कार्य अथवा व्यवसाय में निपुण करने पर बल देता है जिससे वह अपने जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति कर सके और सुख पूर्वक जीवन व्यतीत कर सकें इसके विपरीत आदर्शवाद संपूर्ण ब्रह्मांड को किसी परोक्ष (आध्यात्मिक) शक्ति द्वारा निर्मित मानता है इसके अनुसार यह भौतिक संसार नश्वर है और आध्यात्मिक संसार अनश्वर है मनुष्य को यह आत्मा आधारित प्राणी मानता है और यह मानता है कि मनुष्य जीवन का अंतिम उद्देश्य आत्मानुभूति अथवा ईश्वर की प्राप्ति करना है परिणाम स्वरूप या शिक्षा द्वारा मनुष्य को आत्मानुभूति करने योग्य बनाने पर बल देता है और इसके लिए उसकेे चरित्र एवं नैतिक और अध्यात्मिक विकास पर बल देता है।

2. ज्ञान मीमांसा व शिक्षा (Epistemology and Education)― दर्शन के विषय क्षेत्र ज्ञान शास्त्र के अंतर्गत ज्ञान से संबंधित पक्षों एवं समस्याओं का अध्ययन किया जाता है शिक्षा में ज्ञान मीमांसा का विशेष उपयोग होता है पाठ्यक्रम का निर्माण करना व उसमें किस ज्ञान को सम्मिलित करना है एवं ज्ञान के तत्वों को किस क्रम में व्यवस्थित करना है इन समस्याओं को ज्ञान मीमांसा द्वारा हल करने में सहायता मिलती है शिक्षण विधियों एवं प्रविधियों के चयन करने में भी ज्ञान मीमांसा द्वारा सहायता मिलती है
उदाहरण के लिए प्रकृतिवाद और आदर्शवाद की ही ज्ञान एवं तर्क में मीमांसा को देखिए प्रकृतिवाद के अनुसार वस्तुजगत ही सत्य है और इस वस्तुजगत का ज्ञान ही सत्य ज्ञान है और इस वस्तुजगत का ज्ञान मनुष्य अपनी  कर्मेंद्रियों एवं ज्ञानेंद्रियों द्वारा ही प्राप्त  कर सकता है परिणाम स्वरूप यह शिक्षा के क्षेत्र में कर्मेंद्रियों एवं ज्ञानेंद्रियों द्वारा सीखने पर बल देता है इसके विपरीत आदर्शवाद आध्यात्मिक जगत् के ज्ञान को सत्य मानता है और इस आध्यात्मिक जगत का ज्ञान प्राप्त करने के लिए आत्मशक्ति एवं विवेक शक्ति को आवश्यक मानता है इसके अनुसार किसी भी प्रकार का ज्ञान प्राप्त करने के लिए आत्मकेंद्रित विधियां ही उत्तम विधियां हैं यह वस्तु जगत के इंद्रियों द्वारा प्राप्त ज्ञान को भी तर्क एवं विवेक की कसौटी पर कसकर स्वीकार करने पर बल देता है।

3.मूल एवं आचार मीमांसा और शिक्षा (Axiology and Ethics and Education)― दर्शन में जीवन के प्रति दृष्टिकोण को मूल्य कहा जाता है मूल्य को मूल्यों को मानव जीवन का चरम लक्ष्य, मोक्ष या मुक्ति मानते हैं मूल्यों के विकास में शिक्षा प्रक्रिया का विशेष महत्व है प्रमुख चार मूल्य हैं― नैतिक, सौंदर्य अनुभूति, सामाजिक तथा धार्मिक।
तर्क मीमांसा को भी मूल्य मानसा के अंतर्गत सम्मिलित करते अध्ययन किया जा सकता है शिक्षा की प्रक्रिया में तर्क मीमांसा का विशेष महत्व है क्योंकि शिक्षा ज्ञान प्राप्त करने का एक साधन है और उसका संचालन तार्किक चिंतन के द्वारा ही संभव होता है
उदाहरण के लिए प्रकृतिवाद और आदर्शवाद की मूल्य और आचार मीमांसा को ही देखिए प्रकृतिवाद किन्हीं शाश्वत मूल्यों में विश्वास नहीं करता इसके अनुसार मनुष्य की मूल प्रकृति स्वयं में निर्मल एवं शुद्ध होती है समाज ही उसे विकृत करता है अतः शिक्षा द्वारा उसके अपने प्राकृतिक विकास में सहायता करनी चाहिए। प्रकृतिवाद के अनुसार मनुष्य की प्रकृति स्वतंत्र रहने की है अतः शिक्षा के क्षेत्र में बालकों को किसी भी प्रकार के अनुशासन के बंधन में नहीं रखना चाहिए उन्हें अपनी प्रकृति के अनुसार विकास करने के अवसर देने चाहिए इसके विपरीत आदर्शवाद शाश्वत मूल्यों में विश्वास नहीं रखता इसके अनुसार मनुष्य पाश्विक प्रतियां लेकर पैदा होता है उसे सही मार्ग पर ले जाने के लिए उस पर नियंत्रण रखना आवश्यक है वह शिक्षा के क्षेत्र में अनुशासित रहे आवश्यक है यह प्रारंभ से ही बच्चों को इंद्रिय निग्रह और मूल्यों के पालन करने की ओर प्रवृत्त करने पर बल देता है इतना ही नहीं अपितु यह शिक्षकों से भी इंद्रिय निग्रह एवं मूल्य पालन की अपेक्षा करता है इसके अनुसार जब तक शिक्षक इंद्रिय निग्रह और मूल्यों का पालन नहीं करते, शिक्षार्थियों से इनकी अपेक्षा नहीं की जा सकती या दोनों के लिए आचार संहिता निश्चित करता है।






दर्शन का शिक्षा पर प्रभाव (Influence of Philosophy on Education)


किसी समाज की शिक्षा मुख्य रूप से उस समाज के स्वरूप उसके दार्शनिक चिंतन, शासन तंत्र, आर्थिक व्यवस्था और मनोवैज्ञानिक तथ्यों तथा विज्ञानिक प्रगति पर आधारित होती है इसमें दर्शन का प्रभाव बड़ा स्थाई होता है इस दर्शन की तत्व मीमांसा से शिक्षा के उद्देश्य एवं पाठ्यक्रम, ज्ञान एवं तर्क में मीमांसा से पाठ्यक्रम एवं शिक्षण विधियां और मूल्य एवं आचार मीमांसा से शिक्षा के उद्देश्य शिक्षक तथा शिक्षार्थियों के कर्तव्य और अनुशासन का स्वरूप निश्चित होता है

1.दर्शन और शिक्षा का संप्रत्यय― दर्शन शिक्षा के स्वरूप की व्याख्या करता है इस व्याख्या से हमें शिक्षा के सही संप्रत्यय का ज्ञान होता है उदाहरण के लिए प्रकृतिवाद दार्शनिक शिक्षा को प्राकृतिक प्रक्रिया मानते हैं प्रयोजनवादी दार्शनिक उसे सामाजिक प्रक्रिया मानते हैं और आदर्शवादी दार्शनिक उसे आत्मिक प्रक्रिया मानते हैं

2.दर्शन और शिक्षा के उद्देश्य― दर्शन का सर्वप्रथम भाग तत्व मीमांसा होता है इसमें आत्मा परमात्मा, जीव जगत और जन्म मरण आदि की व्याख्या होती है और उसके आधार पर मानव जीवन के उद्देश्य निश्चित किए जाते हैं शिक्षा द्वारा इन उद्देश्यों की प्राप्त की जाती है

3.दर्शन और शिक्षा का पाठ्यक्रम― दर्शन का दूसरा भाग ज्ञान एवं तर्क मीमांसा होता है इसमें ज्ञान के स्वरूप की व्याख्या की जाती है और इसके आधार पर शिक्षा की पाठ्यचर्या में उसी ज्ञान का समावेश किया जाता है जिसे वे मानव के लौकिक और पारलौकिक जीवन के लिए आवश्यक समझते हैं फिर पाठ्यचर्या तो शिक्षा के उद्देश्य की प्राप्ति का साधन होता है अतः यदि शिक्षा के उद्देश्य दर्शन से प्रभावित होते हैं तो उसकी पाठ्यचर्या भी उसके उससे प्रभावित होनी चाहिए ऐतिहासिक तस्वीर का समर्थन करते हैं

4.दर्शन और शिक्षा विधियां― दर्शन की ज्ञान एवं तर्क मीमांसा में मानव बुद्धि ज्ञान के स्वरूप और ज्ञान प्राप्त करने की विधि की व्याख्या होती है इसी के आधार पर दार्शनिक शिक्षण विधियों का विधान करते हैं

5.दर्शन और अनुशासन― दर्शन का तीसरा प्रमुख भाग होता है मूल्य एवं आचार मीमांसा इसमें मनुष्य को क्या कर्म करने चाहिए और क्या नहीं इसकी व्याख्या होती है इस ज्ञान के आधार पर ही अनुशासन का संप्रत्यय निश्चित किया जाता है

6.दर्शन और शिक्षक तथा शिक्षार्थी― दर्शन की तत्व मीमांसा में मनुष्य के स्वरूप और मूल्य एवं आचर मीमांसा में उसके करणीय तथा अकरणीय कर्मों की व्याख्या की जाती है दर्शन की इस व्याख्या के अनुसार ही शिक्षक और शिक्षार्थी का स्वरूप एवं उनके कर्तव्य निश्चित होते हैं

7.दर्शन और विद्यालय― प्राय: सभी दार्शनिक मनुष्य के लिए आचार संहिता तैयार करते हैं और इसके लिए शिक्षा का विधान करते हैं अब यह शिक्षा कहां दी जाए और कैसे दी जाए इस पर भी प्रकाश डालते हैं

8.दर्शन और शिक्षा की अन्य समस्याएं― दर्शन में शिक्षा की अन्य समस्याएं जैसे- जन शिक्षा, स्त्री शिक्षा और शिक्षा में राज्य के हस्तक्षेप आदि पर भी विचार किया जाता है इतना ही नहीं अपितु शिक्षा के क्षेत्र में कभी भी और किसी भी प्रकार की समस्याओं के समाधान के लिए भी हम दार्शनिक सिद्धांतों का प्रयोग करते हैं।

शिक्षा का दर्शन पर प्रभाव (Influence of Education on Philosophy)


शिक्षा मनुष्य के विकास की आधारशिला है उचित शिक्षा के अभाव में मनुष्य दर्शन जैसे विषय का विकास नहीं कर सकता था दर्शन के निर्माण एवं विकास दोनों के लिए उचित शिक्षा आवश्यक है

1.शिक्षा दर्शन को गतिशील रखती है― शिक्षा हममें निरीक्षण और चिंतन शक्ति का विकास करती है और जीवन की नई नई समस्याओं के प्रति हमें संवेदनशील बनाती है दार्शनिक इन समस्याओं के दार्शनिक हल ढूंढते हैं इस समस्या समाधान की क्रिया में नए-नए दार्शनिक सिद्धांत का निर्माण होता है और यह सब ज्ञान दर्शन अथवा दर्शनशास्त्र का अंग बन जाता है ज्ञान की अन्य शाखाओं की भांति दर्शन भी उन सिद्धांतों का त्याग करता चलता है जो असत्य सिद्ध हो जाते हैं और उन सिद्धांतों को अपनाते चला जाता है जिनके आधार पर जीव और जगत की सही व्याख्या की जा सकती है

2.शिक्षा दर्शन को नई समस्याओं से परिचित कराती है― मनुष्य एक गतिशील और प्रगतिशील प्राणी है विकास के इस पथ में उसके सामने नित्य नई समस्याएं आती हैं शिक्षा हमें इन समस्याओं से परिचित कराती है और यदि हममें दार्शनिक की  तीक्ष्ण बुद्धि होती है तो हम उन समस्याओं पर विचार करने लगते हैं और दर्शन का विकास होता है

3.शिक्षा दार्शनिक सिद्धांतों को मूर्त रूप देती है― दर्शन इस ब्रम्हांड और उसमें मानव जीवन की व्याख्या करता है मानव जीवन के उद्देश्य निश्चित करता है और यह स्पष्ट करता है कि इन उद्देश्यों की प्राप्ति कैसे की जा सकती है शिक्षा वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा हम दर्शन द्वारा निश्चित उद्देश्य को प्राप्त करते हैं इस प्रकार शिक्षा दार्शनिक विचारों को मूर्त रूप प्रदान करती है

4.शिक्षा दर्शन को जीवित करती रखती है― दार्शनिक सृष्टि सृष्टा, आत्मा परमात्मा, जीव जड़ और जन्म तथा मृत्यु आदि की व्याख्या करते हैं उनके द्वारा निश्चित सिद्धांतों से दर्शन विषय का विकास होता है कोई भी समाज अपने पूर्वजों द्वारा निश्चित इन नियमों का ज्ञान शिक्षा द्वारा ही प्राप्त कर सकता है शिक्षा के अभाव में हम दार्शनिक सिद्धांतों का ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकते इस प्रकार शिक्षा दर्शन के ज्ञान को सुरक्षित रखती है

5.शिक्षा दर्शन के निर्माण की आधारशिला है― यह बात सभी जानते हैं कि दर्शन के निर्माण और विकास के लिए अवलोकन चिंतन मनन आवश्यक है जब तक मनुष्य की अंतर्दृष्टि सचेत नहीं होती तब तक वह यह सब कार्य नहीं कर सकता और इस सबका विकास शिक्षा द्वारा होता है शिक्षा के द्वारा ही हम भाषा सीखते हैं और उसी के द्वारा हम विचार करना सीखते हैं अशिक्षित व्यक्ति से दर्शन जैसी विषय के विकास की आशा नहीं की जा सकती इस दृष्टिकोण से शिक्षा दर्शन के विकास की आधारशिला हैं






शिक्षा दर्शन की आवश्यकता, उपयोगिता एवं महत्व (Need, Utility and Importance of Educational Philosophy)


  1. दर्शन को शिक्षा आधार प्रदान करती है दर्शन की सहायता के बिना शिक्षण प्रक्रिया पूर्ण नहीं हो सकती 
  2. शिक्षा प्रक्रिया को सार्थक बनाने के लिए शिक्षा दर्शन का अध्ययन अवश्य करें इसके लिए शिक्षा संस्थानों का उचित प्रबंधन एवं प्रशासन के स्वरूप को विकसित किया जा सकता है 
  3. शिक्षा संबंधी समस्याओं को हल करने में शिक्षा दर्शन सहायता करता है शिक्षा के उद्देश्यों का प्रतिपादन करना शिक्षा के पाठ्यक्रम का समाज और राष्ट्र की दृष्टि से विकसित करना एवं शिक्षण विधियों एवं उसकी उपयोगिता एवं प्रक्रिया का ज्ञान प्रदान करना, यह सब शिक्षा दर्शन के कार्य है 
  4. प्रत्येक शिक्षक का अपना एक दार्शनिक दृष्टिकोण होता है शिक्षक के दृष्टिकोण का प्रभाव बालक के दृष्टिकोण पर भी पड़ता है बालकों के प्रति शिक्षक की भूमिका, कर्तव्य एवं कार्यों का विवरण तैयार करने में शिक्षा दर्शन की आवश्यकता पड़ती है 
  5. शिक्षा दर्शन का क्षेत्र अत्यंत व्यापक है शिक्षा के अंतर्गत अपनाए जाने वाले सिद्धांत विधियां, विश्लेषण इत्यादि सभी दर्शन के विषय हैं 
  6. शिक्षा दर्शन के अध्ययन से शिक्षक अपने कर्तव्य को सुनिश्चित करने में सफल होता है शिक्षण की सफलता के लिए शिक्षक को एक दार्शनिक बनना होता है और शिक्षण में प्रतिबद्धता का भाव विकसित करना होता है 
  7. नियोजित शिक्षक प्रक्रिया को चलाने के लिए विद्यालय के प्रशासन और प्रबंधन के स्वरूप को शिक्षा दर्शन के अध्ययन द्वारा ही निश्चित किया जा सकता है 
  8. शिक्षा दर्शन ही शिक्षणशास्त्र का विकास कर सकता है जिससे शिक्षण की प्रक्रिया के संपादन हेतु विधियों, प्रविधियों तथा सूत्रों का विकास किया जाता है 
  9. इन उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए पाठ्यचर्या निर्माण के सिद्धांतों से परिचित होने के लिए शिक्षा दर्शन के अध्ययन की आवश्यकता होती है 
  10. शिक्षा दर्शन के अध्ययन से भिन्न-भिन्न दर्शन के भिन्न-भिन्न उद्देश्य का ज्ञान प्राप्त करके उन्हें समाज और राष्ट्र की आवश्यकताओं एवं भावनाओं के अनुरूप प्रतिपादित किया जाता है 
  11. शिक्षा दर्शन शिक्षा के सैद्धांतिक एवं व्यवहारिक पक्ष को प्रस्तुत करता है 
  12. शिक्षा दर्शन के अध्ययन से मानव जीवन के स्वरूप और उसके उद्देश्यों का विस्तृत ज्ञान प्राप्त होता है इन उद्देश्यों की प्राप्ति के उपायों का ज्ञान और उसके आधार पर सही मार्ग को चुनना शिक्षा दर्शन के अध्ययन से ही संभव है 
  13. शिक्षा दर्शन के माध्यम से शिक्षा की समस्याओं का दार्शनिक हल प्रस्तुत किया जाता है।