संवेग, संवेगात्मक विकास, अर्थ, परिभाषा, प्रकार ...
संवेग का अर्थ
संवेग एक तरह की अनुभूति होती है जिसमें मानसिक स्थिति एक उथल-पुथल के रूप में व्यक्त होती है संवेग को अंग्रेजी भाषा में इमोशन (Emotion) कहते हैं इमोशन शब्द लैटिन भाषा के इमोवेयर (Emovere) से बना है जिसने ई 'E' का अर्थ- बाहर (Up or Out) और मूवेयर ( Movere ) का अर्थ- निकलना इस प्रकार इमोवेयर का अर्थ "बाहर की ओर निकलना" इसका अर्थ उत्तेजित करना भी होता है वास्तव में संवेग एक जटिल अवस्था है जिसमें कुछ शारीरिक क्रियाएं जैसे हृदय गति में परिवर्तन, रक्तचाप में परिवर्तन आदि क्रियाएं होती हैं इसके अलावा बाहरी अंगों जैसे हाथ, पैर, आंख, चेहरे आदि पर भी कुछ परिवर्तन होते हैं जिन्हें देखकर समझा जा सकता है कि व्यक्ति दुखी है, खुश है या घृणा कर रहा है सभी मानसिक स्थितियों के बारे में पता चलता है
संवेग की परिभाषा
आर्थर टी. जरसील्ड के अनुसार, "संवेग शब्द किसी भी प्रकार के आवेग में आने, भड़क उठने अथवा उत्तेजित होने की दशा को सूचित करता है"
वुडवर्थ के अनुसार, "संवेग जीवन की उत्तेजित अथवा तीव्र अवस्था है यह अनुभूति के इस रूप में उत्तेजित अवस्था है जिसमें की वह व्यक्ति को स्वयं प्रतीत होती है वह पेशीय और ग्रन्थिक क्रिया की गड़बड़ी है जैसा कि बाह्य निरीक्षक को प्रतीत होती है"
इंगलिश तथा इंगलिश के अनुसार, "संवेग एक जटिल भाव की अवस्था होती है जिसमें कुछ खास शारीरिक एवं ग्रंथीय क्रियाएं होती हैं"
गेलडर्ड के अनुसार, "संवेग क्रियाओं का उत्तेजक है"
रॉस के अनुसार, "संवेग चेतना की वह व्यवस्था है जिसमें रागात्मक तत्व की प्रधानता होती है"
संवेगों के प्रकार (Kinds of Emotions)
प्रत्येक संवेग के साथ एक मूल प्रवृत्ति अवश्य जुड़ी रहती है संवेगों का जन्म मूल प्रवृत्तियों से ही होता है विलियम मैक्डूगल (William Mc Dougall) के अनुसार 14 मूल प्रवृत्तियांं हैं
संवेग (Emotion) |
मूल प्रवृत्तियां (Instincts) |
भय (Fear) |
पलायन (Escape) |
क्रोध (Anger) |
युयुत्सा (Combat) |
घृणा या जुगुप्सा (Disgust) |
निवृत्ति (Repulsion) |
वात्सल्य (Tender) |
मातृत्व (Maternal) |
करुणा व दु:ख (Emotion Distress) |
शरणागति (Appeal) |
कामुकता (Lust) |
काम प्रवृत्ति (Sex Instinct) |
आश्चर्य (Wonder) |
जिज्ञासा (Curiostity) |
आत्महीनता (Negative) |
दैन्य (Submission) |
आत्माभिमान (Self-feeling) |
आत्म गौरव या पकाशन (Self assertion or self-display Instinct) |
एकाकीपन (positive self-Feeling Loneliness) |
सामूहिकता (Gregariousness) |
भूख (Hunger) |
भोजनान्वेषण या भोजन की तलाश (Hunger) |
अधिकार भाव (Feeling of ownership) |
संग्रहण (Acquisition) |
कृतिभाव (Creativeness) |
सृजनात्मकता (Constructive) |
आमोद (Amusement) |
हास्य (Laughter) |
संवेगों की विशेषताएं
- संवेग में व्यापकता पाई जाती है संवेग पशु-पक्षी बालक और वृद्ध सभी में पाए जाते हैं
- सामान्य रूप से संवेग की उत्पत्ति प्रत्यक्षीकरण के माध्यम से होती है
- मनुष्य की सभी दशाओं और अवस्थाओं में संवेग पाए जाते हैं
- संवेगात्मक अनुभूतियों के साथ-साथ कोई ना कोई मूल प्रवृत्ति एवं मूलभूत आवश्यकता जुड़ी रहती है
- किसी भी संवेग को जागृत करने के लिए भावनाओं का होना आवश्यक है
- संवेग में अस्थिरता पाई जाती है
- प्रत्येक संवेगात्मक अनुभूति व्यक्ति में कई प्रकार के शारीरिक और मानसिक परिवर्तन को जन्म देता है
- संवेग की दिशा में बुद्धि काम नहीं करती हैं
- संवेग पर परिस्थितियों और ग्रंथियों का प्रभाव पड़ता है
- संवेग का परिणाम कोई क्रिया अवश्य होती है
- संवेग का प्रकाशन हर एक व्यक्ति अपने ढंग से करता है
संवेगात्मक विकास को प्रभावित करने वाले कारक
स्वास्थ्य एवं शारीरिक विकास- व्यक्ति के स्वास्थ्य का उसके संवेगात्मक विकास पर अत्यधिक प्रभाव पड़ता है स्वस्थ व्यक्ति की अपेक्षा बीमार रहने वाले व्यक्ति के संवेगो में अधिक अस्थिरता होती है इसी तरह शारीरिक विकास का भी संवेगो पर अत्यधिक प्रभाव पड़ता है संतुलित संवेगात्मक विकास के लिए विभिन्न ग्रंथियों का ठीक प्रकार से काम करना आवश्यक है जो केवल स्वस्थ और ठीक ढंग से विकसित हुए शरीर में ही संभव है
बुद्धि- समायोजन करने की योग्यता के रूप में बालक के संवेगात्मक समायोजन और स्थिरता की दिशा में बुद्धि महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है विचार शक्ति, तर्कशक्ति आदि मानसिक शक्तियों के सहारे ही व्यक्ति अपने संवेगो का कुशलता पूर्वक अनुकूल दिशा देने में सफल हो सकता है अतः प्रारंभ से ही बालकों की मानसिक शक्तियों, बालकों के संवेगात्मक विकास को दिशा प्रदान करने के में लगी रहती हैं
वंशानुक्रम- वंशानुक्रम से शारीरिक और मानसिक गुण और योग्यताएं प्राप्त होती हैं और उनका बालक के संवेगात्मक विकास पर प्रभाव पड़ता है
सामाजिक स्थिति- सामाजिक स्थिति का भी बालक के संवेगात्मक विकास पर बहुत अधिक प्रभाव पड़ता है निम्न सामाजिक स्थिति के बालकों में उच्च सामाजिक स्थिति के विद्यार्थियों की अपेक्षा अधिक असंतुलन और अधिक संवेगात्मक अस्थिरता होती है
आर्थिक स्थिति- परिवार की आर्थिक स्थिति भी बालक के संवेगात्मक विकास पर प्रभाव डालती है धनवान परिवार के बालकों और निर्धन परिवार के बालकों में संवेगात्मक विकास में काफी भिन्नता होती है उनमें कई कारणों से ईर्ष्या, द्वेष की भावना उत्पन्न हो जाती है
विद्यालय का वातावरण और अध्यापक- विद्यालय का वातावरण भी संवेगात्मक विकास में काफी अधिक प्रभाव डालता है अनुकूल वातावरण के द्वारा बालकों को अपना संवेगात्मक संतुलन बनाए रखने और उचित समायोजन करने में बहुत आसानी होती है विद्यालय का अच्छा वातावरण, पाठ्यक्रम और कार्यक्रम बालकों के संवेग को संतुष्ट करता है और आनंद प्रदान करता है अच्छे वातावरण में संवेग का स्वस्थ विकास होता है विद्यालय के वातावरण में व्याप्त सभी बातें जैसे विद्यालय की स्थिति, उसकी प्रकृति एवं सामाजिक परिवेश, अध्यापन का स्तर आदि बालकों के संवेगात्मक विकास को पर्याप्त रूप से प्रभावित करते हैं
पारिवारिक वातावरण और आपसी संबंध- परिवार के वातावरण और आपसी संबंधों का भी बालकों के संवेगात्मक विकास पर बहुत अधिक प्रभाव पड़ता है जो कुछ बड़े करते हैं उसकी छाप बच्चों पर अवश्य पड़ती है अतः परिवार में जैसा संवेगात्मक व्यवहार बड़ों का होगा बच्चे भी वैसा ही व्यवहार करना सीखेंगे कलह-लड़ाई से युक्त परिवारिक वातावरण क्रोध, भय, चिंता इत्यादि संवेगों को ही जन्म दे सकते हैं जबकि प्रेम, दया, सहानुभूति और आत्मसम्मान से भरपूर वातावरण बच्चों को उचित और अनुकूल संवेग स्थायित्व दे सकते हैं माता-पिता तथा अन्य परिजन के द्वारा उनके साथ व्यवहार किए जाने वाला व्यवहार भी संवेगात्मक व्यवहार को प्रभावित करता है यहां तक माता-पिता और बच्चों के बीच व्यवहार भी बच्चों के संवेगात्मक व्यवहार पर बहुत अधिक प्रभाव डालता है
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